उत्तराखंड

Kargil Vijay Diwas: करगिल युद्ध और LAC पर पाकिस्तान-चीन को भारतीय सेना से मिला सबक

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नई दिल्ली. करगिल विजय दिवस (Kargil Vijay Diwas) को 22 साल पूरे हो गए हैं. हर साल इस मौके पर द्रास में दो दिन का कार्यक्रम होता है जहां युद्ध में हिस्सा लेने वाले सैनिक और इसी दौरान शहीद हुए सैनिकों के परिवार शामिल होते हैं. सबसे यादगार पल होता है 25 तारीख की शाम का जब बिगुल की आवाज़ के बीच युद्ध स्मारक सैंकड़ो मोमबत्तियों से चमचमा उठता है. करगिल युद्ध हिम्मत और शौर्य की कहानी है. एलओसी पर कब्ज़े की खबर सबसे पहले 3 मई, 1999 को एक स्थानीय चरवाहे ताशी नामग्याल ने दी थी. भारतीय सेना की तरफ से जिन सैनिकों को भेजा गया था, उनकी पाकिस्तानी सैनिकों से भिड़ंत हुई जो एलओसी के भारतीय हिस्से के करीब 140 पोस्ट पर कब्जा जमाए थे. हैरानी की बात है कि करीब 1,000 वर्ग किलोमीटर तक के हिस्से पर कब्ज़ा किया गया था.

इस ऊंचाई पर फिर से अपना परचम लहराना आसान काम नहीं था. पहली सफलता जून १३ को मिली जब तोलोलिंग को हासिल किया गया. इसके बाद भारतीय सेना को रोक पाना मुश्किल था. विक्रम बत्रा, योगेंद्र सिंह यादव, मनोज कुमार पांडे और संजय कुमार जैसे नाम इस सफलता के लिए जिम्मेदार थे. हालांकि यह सफलता हासिल आसानी से नहीं मिली और करीब 500 सैनिक इसमें शहीद हुए जब तक कि भारत की मिट्टी से आखिरी पाकिस्तानी घुसपैठिए को बाहर नहीं खदेड़ दिया गया.

करिगल में पहली घुसपैठ के 21 साल बाद मई 5 ,2020 को चीनी सैनिकों को पूर्वी लद्दाख के एलएसी पर घुसपैठ करते और भारतीय सेना से भिड़ते हुए देखा गया. 15 जून को गलवान घाटी में हुई खूनी मुठभेड़ में २० भारतीय और कई चीनी सैनिकों की मौत हुई. कई जानकारों ने लद्दाख के इस संकट को करिगल युद्ध से जोड़ा और किस तरह भारतीय सेना को एक बार फिर चौंका दिया गया.

करिगल और एलएसी आमना सामना – समानताएं

किसी भी युद्ध या सीमा चढ़ाई की तुलना सही नहीं है लेकिन इन दोनों ही घटनाओं में कुछ समानताएं थीं जिससे सबक हासिल किया जा सकता है. शुरुआत में भारत का रवैया मामले की गंभीरता को कम दिखाना था. मई में फ्रंटलाइन पत्रिका को दिए एक इंटरव्यू में 15 कोर्प्स कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल किशन पाल ने घुसपैठियों के लिए कहा कि – अगर मैं उनकी तरफ ध्यान नहीं देता तब भी कोई फर्क नहीं पड़ता. इससे पहले रक्षा मंत्री ने कहा था कि घुसपैठियों को अगले 48 घंटों में खदेड़ दिया जाएगा.

ऐसी ही प्रतिक्रिया भारत सरकार की तब आई जब पूर्वी लद्दाख में चीन का घुसपैठ हुआ. यह स्वीकार करने में बेहद झिझक थी कि चीन की सेना ने भारत के क्षेत्र को अपना बताकर उस पर कब्ज़ा कर लिया है. रक्षा मंत्रालय ने अपनी वेबसाइट पर माना था कि चीन ने एलएसी पर कब्जा किया है लेकिन उसे जल्दी से हटा दिया गया.

राष्ट्रीय सुरक्षा की कमजोरी को स्वीकार करना सरकार के लिए आसान नहीं होता. थोड़ी बहुत तथ्यों की अस्पष्टता होती है, इस उम्मीद में कि मामला जैसे तैसे सुलझ जाएगा. अफसोस की इससे काम नहीं बन पाया. करगिल और पूर्वी लद्दाख दोनों से ये सीख ली जानी चाहिए कि समस्या की स्वीकारोक्ति सबसे पहला कदम होना चाहिए.

करगिल और एलएसी का आमना-सामना हमारी गुप्तचर एजेंसियों की कमजोरी भी दिखाता है. हालांकि करगिल के बाद इनकी क्षमताओं में सुधार किया गया है. रक्ष गुप्तचर एजेंसी का 2002 में गठन हुआ और राष्ट्रीय तकनीकी शोध संस्थान का 2004 में गठन हुआ जिसका काम तकनीकी गुप्तचर जानकारी जुटाना है. जानकारियों के लिए तालमेल बैठाने के लिए मल्टी एजेंसी केंद्र का निर्माण 2009 में किया गया. लेकिन इसके बावजूद साफ था कि समस्याएं दूर नहीं हुई हैं. जानकारी जुटाने में सुधार हुआ है लेकिन उसके आकलन और व्याख्या में अभी भी कमियां हैं. मीडिया में लगातार बताया जा रहा था कि जनवरी 2020से चीनी सेना पूर्वी लद्दाख के दूसरी तरफ सैन्य अभ्यास कर रही है. लेकिन चीन के इरादों को लेकर किसी तरह की गुप्त जानकारी हासिल नहीं हो पाई.

हालांकि माना जाता है कि किसी भी तरह की असफलता के लिए गुप्तचर एजेंसी पर ठीकरा फोड़ देना आसान काम है. जाहिर तौर पर ये राजनेताओं का दूसरे देश के नेताओं से बात करना, सीमा पर सेना की तैनाती, कूटनीतिक अधिकारी और गुप्तचर एजेंसियों का मिला जुला प्रयास होता है. इसलिए कहा जाता है कि सिर्फ नए ढांचे खड़े करने से ही नहीं, बल्कि सभी एजेंसियों के साथ मिलकर काम करने से खतरे को टाला जा सकता है.

भारत के विरोधियों के लिए सबक

वहीं भारत के विरोधियों के लिए भी सबक था कि वह भारत की सैन्य शक्ति को कमतर न आंके. करिगल में शुरुआती हफ्तों में भारत की असफलता ने पाकिस्तान के करिगल योजनाकर्ताओं को खुश कर दिया था. नसीम ज़ेहरा ने अपनी किताब – From Kargil to the Coup – में लिखा है कि पाकिस्तान की तरफ से हालात बदलने जैसी आशंका को पूरी तरह नकार दिया गया था. लेकिन जून में जब भारतीय सेना ने करगिल क्षेत्र में लामबंदी पूरी कर दी तब पाकिस्तान की सोच पर पानी फिर गया.

पूर्वी लद्दाख में भी पहले पहल चीनी सेना ने सफलता हासिल की लेकिन बाद में उनके लिए भी हालात बदल गए. भारतीय सेना ने मजबूत लामबंदी की और अगस्त में कैलाश हाइट्स पर फिर से काबू पाने के लिए एक तीव्र ऑपरेशन को अंजाम दिया. अभी भी कुछ जगहों पर हालात ठीक नहीं है लेकिन भारत ने साफ कर दिया है कि जब तक चीन एलएसी से पीछे नहीं होता, तब तक वह भी नहीं हिलने वाला.

पाकिस्तान और चीन को समझ जाना चाहिए कि भारत राष्ट्रीय हित के लिए सैन्य शक्ति का इस्तेमाल करने से पीछे नहीं हटेगा. भारतीय सेना एक ताकतवर और पेशेवर संस्था है जो विकट हालात में मजबूती से खड़ी हो सकती है. यथापूर्व स्थिति में किसी भी तरह की छेड़छाड़ को भारतीय सेना गंभीरत से लेगी. 1967 में नाथू ला से लेकर 1986 में सुमदुरुंग चू तक और हाल ही में डोकलाम और लद्दाख में चीन की भारतीय सेना पर दबाव डालने की हालिया कोशिशों ने उन्हें बड़ी सफलता नहीं दी. करगिल और पूर्वी लद्दाख में भारतीय सेना के सैनिकों ने बिगड़े हालात को संभाला है. करगिल विजय दिवस के मौके पर हम अपने शहीदों के सम्मान में हर सैन्य संकट को लेकर आत्ममंथन करते हुए सबक ले सकते हैं.

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