भारत में शादी का बदलता ट्रेंड: लड़के वालों की चौखट पर घटी लड़की वालों की लाइन..
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‘अब्बू के जाने के बाद से अम्मी को हम दोनों बहनों के निकाह की बड़ी चिंता रहती थी. मेरी बहन बड़ी थी, शारीरिक रूप से स्वस्थ और घर का पूरा काम करती लेकिन किसी के सामने बात नहीं कर पाती थी, पढ़ भी नहीं पाई. मैं छोटी थी लेकिन बीए तक पढ़ी, उर्दू और फारसी की तालीम भी ले ली. मुझे किसी निकाह में देखने के बाद एक दिन अचानक ही लड़के के अब्बू ने मेरे रिश्तेदारों से कहलवाया और मेरा हाथ मांग लिया. मां ने सब देख के बात तय कर दी और खुश भी हुई कि बाप है नहीं, लड़का देखने कौन जाता, सब अपने आप हो गया.’ अपनी कहानी बता रही सजिया के जैसा ही मामला एमएससी-बीएड अंजना के साथ भी हुआ. अंजना ने बताया, ‘बड़ी बहन के परिवार वालों ने जब अपने छोटे बेटे के लिए मेरा हाथ मांगा तो घरवाले एक बार को सोच में पड़ गए. प्राइवेट नौकरी कर रहे लड़के के लिए एक लड़की देने के बाद, वे नहीं चाहते थे कि दूसरी बेटी की शादी भी ऐसे ही करें. किसी तरह टालमटोल कर मना कर दिया और फिर सरकारी कर्मचारी से मेरी शादी की.’
ये आपबीती सिर्फ दो धर्मों से जुड़ी इन दो लड़कियों की नहीं है. समाज में आज ऐसे तमाम उदाहरण हैं जब लड़के वाले खुद लड़कियों का हाथ मांग रहे हैं.
नौकरी-पेशा, उम्रदराज हो चुके बेटों की शादी के लिए लोगों को वेबसाइटों, फेसबुक और अन्य प्लेटफार्मों पर बायोडाटा पोस्ट करने और रिश्तेदारों का सहारा लेने के साथ ही खुद रिश्ते की बात भी चलानी पड़ रही है.
जबकि आज से करीब 10-15 साल पहले तक स्थिति कुछ और थी. लड़के वाले सिर्फ घरों में बैठते थे और लड़की वालों को सुयोग्य वर के लिए महीनों तक चक्कर काटने पड़ते थे.
अपनी चार बहनों और चार ही बेटियों के अलावा अपने भाइयों और रिश्तेदारों की बेटियों के रिश्ते करवाने में अहम भूमिका निभाने वाले रेवती प्रसाद बताते हैं, ‘पिछले 40 साल के अंदर उन्होंने शादी के तरीकों में एक बड़ा बदलाव देखा है. लड़के वालों के घर पर रिश्ते के लिए लड़की वालों की लगने वाली लंबी लाइन अब सिमट गई है. इसके लिए लड़कियों की घटती जन्मदर या लड़कियों का पढ़ लिखकर अपने पैरों पर खड़ा होना बड़ी वजह हो सकती है. मैं खुद 3 बेटियों की शादी के लिए लड़के देखने गया लेकिन सरकारी नौकरी कर रही चौथे नंबर की बेटी के लिए लड़के वालों की तरफ से खुद रिश्ता आया. मैं देख रहा हूं कि आजकल लड़कियां ज्यादा पढ़ी-लिखी हैं. जब तक अच्छा वर नहीं मिलता मां-बाप भी शादी करने के लिए खुद को तैयार नहीं कर पाते हैं. आज बेटी वाले के पास ज्यादा विकल्प हैं. पिछले कुछ सालों से देख रहे हैं कि अगर लड़के की समय से शादी करनी है तो मकान-सम्पत्ति और लड़के की सरकारी नौकरी होना जरूरी है.’
शादी के बदलते ट्रेंड में लड़के वालों की चुनौतियां बढ़ गई हैं.
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की सदस्य उज्मा आलम कहती हैं, मुस्लिम धर्म में निकाह को लेकर भी कमोबेश यही स्थिति है. पुराने समय में निकाह करने से पहले लगभग सभी लड़की वाले लड़के देखने जाते थे. उनका खानदान, चाल-चलन जांचा जाता था. लड़का पक्ष की सब चीज से राजी होने के बाद ही लड़की को दिखाया जाता था और बात आगे बढ़ती थी लेकिन अभी मैं देख रही हूं कि इन चीजों में बड़ा बदलाव आया है. अब ऐसी परंपरा टूट रही है कि सिर्फ बेटी वाले ही बेटे वालों की दहलीज पर रिश्ता लेकर जा रहे हैं. अब चीजें दोनों तरफ से हो रही हैं. लड़के वाले भी अब अपनी तरफ से लड़की का हाथ मांगते हैं या रिश्तेदारों के माध्यम से सिफारिश करवा देते हैं. लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई, नौकरी-पेशा और बाहर रहने से अब इस समुदाय में भी लव मैरिज या लव विद अरेंज्ड शादियों का चलन बढ़ा है. अच्छे रोजगार वाले युवाओं के रिश्तेदारी में ऐसे कई उदाहरण हैं, जिन्होंने पसंद से अपने साथ जॉब कर रही लड़की से निकाह किया है. बेरोजगारों के लिए कठिनाइयां बढ़ी हैं.
पीले चावल-सुपारी से डिजिटल कार्ड तक…
शादी विवाह के कार्ड छापने से लेकर शादियों में फोटोग्राफी के लिए करीब 30 साल से प्रेम स्टूडियो चला रहे प्रेमकांत शर्मा कहते हैं 40-50 साल पहले शादी के कार्ड छपवाने का चलन नहीं था. सिर्फ पीली चिठ्ठी होती थी. वहीं आस पड़ौस से लेकर रिश्तेदारों को लड़के की बारात का न्योता देना होता था तो बुलावे के साथ सुपारी दी जाती थी. अगर लड़की की शादी का न्योता देना होता था तो पीले चावल भेजे जाते थे. धीरे-धीरे निमंत्रण पत्र आए. एक समय ऐसा आया कि 3 रुपये की कीमत से लेकर 300 रुपये तक के कार्ड छपवाए जाते थे. चाहे हिंदू हों या मुस्लिम निमंत्रण पत्र का प्रचलन अब खत्म होता दिखाई दे रहा है. अब डिजिटल कार्ड बन रहे हैं. एक कार्ड व्हाट्सएप के माध्यम से सबको फॉरवर्ड कर दिया जाता है. वहीं कुछ लोग 5 या 11 कार्ड छपवाते हैं, फिर उनके फोटो रिश्तेदारों को भेजते हैं. अब बुलावे का प्रमुख तरीका फोन कॉल हो गया है.
कार्ड के मुकाबले फोटोग्राफी का क्रेज बढ़ गया है. प्री-वेडिंग फोटोग्राफी से लेकर पोस्ट वेडिंग फंक्शंस पर कैमरे की नजर रहती है. महंगी शादियों में अब ड्रोन कैमरों से लेकर बड़े और महंगे कैमरों से हजारों की संख्या में डिजिटल फोटो खींचे जाते हैं. जबकि मध्यम वर्गीय हों या निम्न आय वर्ग वाले सभी में लड़के और लड़की वाले पहले वीसीआर की कैसेट में वीडियो या फोटो लेते थे. उसके बाद सीडी, फिर डीवीडी आई. अब फोटोज-वीडियो पैन ड्राइव में लेकर जाते हैं.
11 दिन की लग्न से ढ़ाई घंटे की शादी तक… इतने बदल गए रीति-रिवाज
सार्वजनिक रूप से सक्रिय खुर्जा निवासी पूर्व ग्राम प्रधान संध्या राघव कहती हैं कि सिर्फ उच्च वर्ग ही नहीं मध्यम वर्ग में भी होने वाले प्रेम विवाह में अब कई रीति-रिवाजों से शादियां हो रही हैं. मसलन अगर पंजाबी दूल्हा है और दुल्हन हिंदू या मुस्लिम है तो फिर वे आपसी समझ से सनातन या मुस्लिम रीति रिवाज और पंजाबी रीति रिवाजों से निकाह और शादियां कर रहे हैं, जबकि पहले ऐसा नहीं होता था. धर्म कितने भी अलग हों, जो डोमिनेटिंग होता था, खासतौर पर लड़के वाले, उन्हीं के धर्म के अनुसार शादी होती थी.
वे बताती हैं कि हिन्दू और मुस्लिमों में समान रूप से विवाहों में विवाह तय करने दौरान सबसे पहले लड़के पक्ष के बड़े-बुजुर्गों के सम्मान में कन्या पक्ष की ओर से मिलनी या भेंट देने का प्रमुख चलन था, जो अब एकमुश्त दूल्हे के पिता को दे दिया जाता है. इससे परिवारों का मिलना-मिलाना कम हो गया है.
अब शादी चाहे गांव में हो या शहर में, आर्थिक रूप से उच्च वर्ग में हो या मध्यम और निम्न वर्ग में, लगभग सभी शादियों में वरमाला का कार्यक्रम पूरी तरह नाटकीय और आकर्षण का प्रमुख केंद्र हो गया है. एक-दूसरे से हटकर और बेहतर करने के चक्कर में कई बार अच्छी चीजें होती हैं तो कई बार हादसे भी होते हैं. पहले शादियों में दूर-दराज के लोगों के द्वारा भी फेरों के दौरान जो भी पान-फूल दे रहे हैं, उससे कन्यादान करना प्रमुख माना जाता था, अब इस प्रथा में हल्कापन आया है. लिफाफा देने की रीति ने जोर पकड़ लिया है.
वहीं उज्मा आलम कहती हैं कि मुस्लिम धर्म में निकाह में मेहर और कुबूलनामे के अलावा कोई खास रीति रिवाज नहीं हैं लेकिन समाज को देखते-देखते हल्दी, मेहंदी, संगीत की रस्में होने लगी हैं. कई जगहों पर अब स्टेज या वरमाला का कार्यक्रम भी होता है. हां रिसेप्शन जरूर एक रिचुअल है कि लड़के वाला पैसेवाला है तो वह अपने व्यवहा के लोगों को दावत खिला सकता है.
संध्या कहती हैं कि पहले के समय में 11, 7, 5 या कम से कम 3 दिन की लग्न रखी जाती थी. शादियों में एक महीने पहले से देहरी पूजन, गीत-गाने के साथ अनाज साफ करने की प्रक्रिया चलती थी जो कि सुविधानुसार अब एक दिन नहीं बल्कि 4 घंटे में ही सगाई, शादी और विदाई करके निपटा रहे हैं. आर्य समाज के मंदिरों में सिर्फ दो घंटे में शादी पूरी हो जाती है. महिलाओं के हाथ से रीति-रिवाज वेडिंग प्लानर्स के हाथों में पहुंच गए हैं.
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