उत्तराखंड

जटिल है उत्तर प्रदेश का जातीय गणित, पर भाजपा ने कैसे निकाला इसका तोड़? जानिए

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(नलिन मेहता)

तथ्य अपनी जगह अमूमन सही ही होते हैं. उनकी व्याख्याएं लेकिन अलग-अलग हो सकती हैं. और  भारतीय जनता पार्टी (Bharatiya Janata Party) पर ‘सवर्णों की पार्टी’ होने के आरोप का मसला भी काफी कुछ ऐसा ही है. इसलिए तीसरा पहलू देखना भी जरूरी हो जाता है. भाजपा (BJP) और उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) के संदर्भ में यह तीसरा पहलू है, ‘मेहता-सिंह सामाजिक सूचकांक’ (Mehta-Singh Social Index). यह सूचकांक 1991 से 2019 के बीच के दौर में आए-गए उत्तर प्रदेश के हजारों राजनेताओं की पृष्ठभूमि के बारे में बताता है.

उत्तर प्रदेश का जटिल-जातीय गणित, स्थानीय लोग भी चूक जाते हैं :
दरअसल, उत्तर प्रदेश में जातीयों का गणित थोड़ा जटिल है. यहां सिर्फ नाम या उपनाम के आधार पर किसी की जाति का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता. उदाहरण के लिए नोएडा में ‘वर्मा’ लिखने वाले लोग अधिकांशत: गुर्जर होते हैं. लेकिन यही ‘वर्मा’ पूर्वी उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति (SC) में आ जाते हैं तो बुलंदशहर के आसपास के इलाकों में सुनार हो जाते हैं, यानी अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC). अवध के क्षेत्र में भी ‘वर्मा’ ओबीसी ही होते हैं. यहां वे कुर्मी समुदाय से ताल्लुक रखते हैं. जबकि कहीं-कहीं कायस्थ यानी सवर्ण भी होते हैं. इसी तरह, बलिया के ‘चौधरी’ यादव हैं, जबकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट. किन्हीं-किन्हीं जिलों में कुर्मी भी. ‘कुशवाहा’ भी राजपूत के साथ कहीं-कहीं ओबीसी वर्ग में भी आते हैं. उत्तराखंड से ताल्लुक रखने वाले ‘रावत’ ठाकुर/राजपूत हैं तो उत्तर प्रदेश के ‘रावत’ पासी समुदाय के, यानी अनुसूचित जाति (SC) से. ‘चंद्र’ कहीं किसी जगह ठाकुर/राजपूत हैं, कहीं एससी. ऐसे ही, ‘त्यागी’ पश्चिमी उत्तर प्रदेश से हैं तो ब्राह्मण और पूर्वी क्षेत्र से तो एससी. मेरठ के आसपास के कुछ इलाकों में त्यागी भूमिहार भी होते हैं. इस जटिल जातीय-बनावट के कारण कई बार स्थानीय लोग तक अपने परिचितों की जाति ठीक-ठीक बता पाने से चूक जाते हैं.

आंकड़ों में देखिए उत्तर प्रदेश की सियासी तस्वीर :

  • 2,560 उम्मीदवार उतारे भाजपा, कांग्रेस, सपा, बसपा, आदि ने हर बार राज्य की 80 लोकसभा सीटों पर. बीते 3 दशक (1991 से 2019) हर बार.
  • 1,612 उम्मीदवारों को इन चारों पार्टियों ने 2017 के विधानसभा चुनाव में राज्य की 403 सीटों पर टिकट दिया था.
  • 42 प्रदेश स्तर के पदाधिकारी रहे, उत्तर प्रदेश में भाजपा के पास 2020 में.
  • 101 मंत्री हुए राज्य में बीते 2012 से 2020 के बीच. इनमें 54 योगी आदित्यनाथ की मंत्रिपरिषद में जबकि 47 अखिलेश यादव के कार्यकाल में रहे.
  • 98 जिला-अध्यक्ष रहे उत्तर प्रदेश में भाजपा के 2020 में.

और ये देखिए भाजपा की सोशल-इंजीनियरिंग
मेहता-सिंह के सामाजिक-सूचकांक के अनुसार भाजपा की सोशल-इंजीनियरिंग की एक झलक मिल जाती है. इससे पता चलता है कि उसने राज्य में ओबीसी और एससी को कैसे, कितनी और कहां-कहां जगह दी है. एक निगाह..

  • 5% भाजपा प्रत्याशी 2019 के लोकसभा चुनाव में इन्हीं वर्गों से थे
  • 8% विधानसभा प्रत्याशी, 2017 के राज्य विधानसभा चुनाव में, जिसमें पार्टी ने बंपर जीत हासिल की थी.
  • 50% पार्टी पदाधिकारी 2020 में इन्हीं वर्गों से थे
  • 1%मंत्री योगी आदित्यनाथ की मंत्रिपरिषद में ओबीसी-एसी से ताल्लुक रखते हैं
  • 6%जिला अध्यक्ष भाजपा के इन्हीं वर्गों से ताल्लुक रखते हैं.

इन आंकड़ों से साबित होता है कि मोदी-शाह (Modi-Shah) के नेतृत्व वाली नई भाजपा को ‘सवर्णों की पार्टी’ कहना क्यों गलत है. क्योंकि हकीकत इसके ठीक उलट है. बल्कि वह तो उत्तर प्रदेश के जटिल-जातीय गणित का तोड़ निकाल चुकी है. उसने 2013 से 2019 के बीच इस मामले में काफी काम किया है. उसने न सिर्फ अपने सामाजिक-समर्थन का दायरा बढ़ाया है, बल्कि संगठन में भी ओबीसी वर्गों को भरपूर जगह दी है. केंद्रीय भूमिकाएं दीं हैं. इस सोशल-इंजीनियरिंग का ही कमाल है कि आज 54.5% ओबीसी और 20.7% एससी आबादी वाले उत्तर-प्रदेश में दूसरी तमाम पार्टियों से इस मामले में काफी आगे है. खासकर लोकसभा-विधानसभा में इन वर्गों को प्रतिनिधित्व देने के मामले में अभी तो पक्के तौर पर.

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(ये लेख नलिन मेहता की किताब के संपादित अंशों के आधार पर लिखा गया है. यह किताब ‘द न्यू बीजेपी ; मोदी एंड द मेकिंग ऑफ वर्ल्ड लार्जेस्ट पॉलिटिकल पार्टी’ शीर्षक से प्रकाशित हुई है.)

Tags: BJP, Caste politics, Caste System, UP Assembly Election 2022, Uttar Pradesh Politics

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