उत्तराखंड

सिर्फ़ पढ़ाई से नहीं बनेगी बात, देशभक्त होने के लिए क्यों ज़रूरी है लाइन में सही जगह खड़े होना?

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कोविड-19 के टीके की किल्लत और भीड़भाड़ की ख़बरों ने बहुत से लोगों को टीकाकरण केंद्रों पर पहुंचने से रोक रखा है, लेकिन सही बात तो यह है कि अगस्त के महीने में अब टीके की उतनी कमी है नहीं. कोविन एप पर टीकाकरण के लिए रजिस्ट्रेशन कराने पर आप आसानी से टीका लगवा सकते हैं. यह अलग बात है कि टीकाकरण केंद्रों पर बहुत भीड़भाड़ नहीं होने पर भी आप जीवन के कुछ सामान्य, किंतु कड़वे अनुभवों से दो-चार हो सकते हैं. ज़रूरी नहीं कि ऐसे अनुभव टीकाकरण के लिए लगी किसी लाइन में ही महसूस किए जा सकते हैं, कहीं भी आप इनसे रू-ब-रू हो सकते हैं.

हुआ यूं‍ कि एक सरकारी स्कूल में बनाए गए टीकाकरण केंद्र में मैं समय से पहले ही पहुंच गया, ताकि जल्दी नंबर आ जाए. मुझसे आगे 12-13 लोग पहले से लाइन में लगे हुए थे कि अचानक मेरे आगे खड़ी 45+ की प्रौढ़ महिला के आगे एक बुज़ुर्ग महिला खड़ी होने का प्रयास करने लगीं. प्रौढ़ महिला ने ऐतराज़ जताया, तो बुज़ुर्ग दुहाई देने लगीं कि वह तो बहुत पहले से लाइन में लगी हुई थीं. थक जाने की वजह से कहीं बैठ गई थीं, अब वापस अपने नंबर पर लगना चाहती हैं.

मुझे पता था कि बुज़ुर्ग महिला झूठ बोल रही हैं, क्योंकि मैंने उन्हें  काफ़ी बाद में स्कूल परिसर में आते हुए साफ़ नोटिस किया था. फिर भी दोनों महिलाओं के बीच मैं कुछ नहीं बोला. नतीजा यह हुआ कि बुज़ुर्ग महिला ऐतराज़ करने वाली महिला के पीछे यानी मेरे आगे खड़ी हो गईं, तो उनके आगे वाली महिला शांत हो गई. बुज़ुर्ग काफ़ी देर तक बड़बड़ाती रहीं कि वे पहले से ही लाइन में लगी हुई थीं… उनके अधिकार का अतिक्रमण किया गया… उनकी उम्र का लिहाज़ भी नहीं किया गया… वगैरह-वगैरह.

क़रीब आधे घंटे बाद टीका लगने की प्रक्रिया शुरू हुई, तो कई लोग सबसे आगे मंडराने लगे और जैसा कि होता है आगे वालों से उनकी तकरार होने लगी. भीड़ बहुत नहीं थी, लिहाज़ा मैं आश्वस्त था कि 15-20 मिनट में नंबर आ जाएगा. लेकिन, कुछ लोगों को सब्र बिल्कुल नहीं होता. एक तो वे देर से आते हैं, फिर जल्दी नंबर आने की जुगत में लग जाते हैं. जो बुज़ुर्ग महिला मेरे आगे झूठ बोलकर लगी थीं, वे भी सबसे आगे हो रही तकरार से परेशान थीं. वे बाद में आने वालों और जल्दी टीका लगवाने की फिराक़ में लगे लोगों के भ्रष्टाचरण पर मुखर हो रही थीं.

मुझे मन ही मन उनकी चोरी और सीनाज़ोरी पर हंसी आ रही थी. बात-बात में पता चला कि वे किसी स्कूल में पढ़ाया करती थीं. बहरहाल, उन बुज़ुर्ग महिला के बाद मेरा नंबर भी आ गया.

पढ़ाई और शिक्षा में क्या फ़र्क़ है?

टीका लगवा कर घर लौटते समय मैं उन्हीं बुज़ुर्ग महिला के बारे में सोच रहा था. शक नहीं कि वे उम्रदराज़ थीं, इसलिए उन्हें बहुत देर तक खड़ा नहीं रखा जाना चाहिए था. केंद्र के व्यवस्थापकों को इसका उचित इंतज़ाम रखना चाहिए था कि किसी बुज़ुर्ग को जल्द से जल्द टीका लग जाए. लेकिन अगर ऐसा नहीं था, तो क्या वे लाइन में आगे लगे लोगों से ख़ुद को आगे खड़े होने देने के लिए विनम्रता से निवेदन नहीं कर सकती थीं? अगर वे ऐसा करतीं, तो शायद कोई भी इनकार नहीं करता, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया और तिकड़म से काम लिया.

वे रिटायर्ड शिक्षिका थीं. स्कूल में अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने हज़ारों बच्चे पढ़ाए और पास किए होंगे, लेकिन क्या वे एक-दो को भी सही शिक्षा दे सकी होंगी? तो क्या किताबी ‘पढ़ाई’ और ‘शिक्षा’ में बुनियादी फ़र्क़ है? शिक्षा व्यवस्था क्या मात्र नंबरों के आधार पर अगली कक्षाओं में क्रमोन्नत होने का उपकरण होना चाहिए या फिर अच्छे नागरिक बनाने का?

बड़ा सवाल है कि क्या हमारे शिक्षक विद्यार्थियों में नागरिकीय ज़िम्मेदारियों के प्रति जागरूकता की भावना भरते हैं? वे ऐसा करना अपना कर्तव्य मानते भी हैं या नहीं? या फिर हमारी शिक्षा व्यवस्था में सिविक सेंस पैदा करना शिक्षकों के उत्तरदायित्व का अनिवार्य हिस्सा होता ही नहीं? ये और इस तरह के तमाम सवाल आज के समय में इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं, क्योंकि अब एकल परिवार व्यवस्था में बच्चों को अच्छे नागरिक बनने की शिक्षा परिवार से भी प्राथमिक तौर पर नहीं मिल पाती.

बच्चों को महंगे स्कूलों में पढ़ाने और उनकी दूसरी ज़रूरतें पूरी करने के लिए माता-पिता दिन-रात धनार्जन की चिंता में ही लगे रहते हैं. उनके पास बच्चों के लिए समय ही नहीं है. ऐसे में दिल्ली सरकार के स्कूलों में ‘देशभक्ति’ विषय को पाठ्यक्रम में शामिल करने का फ़ैसला ऊपरी तौर पर तो अच्छा लगता है, लेकिन इससे लक्ष्य हासिल हो पाएगा, इसमें संदेह है.

मूल्यों और कार्यों की खाई पटती क्यों नहीं?

दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया का कहना है कि जरूरी है कि हम अपने मूल्यों और कार्यों के बीच की खाई को कम करें और यह तय करें कि समानता, बंधुत्व और न्याय के संवैधानिक आदर्शों का पालन बच्चे अपने दैनिक जीवन में भी करें. साफ़ है कि दिल्ली सरकार के देशभक्ति पाठ्यक्रम में बच्चों को संवैधानिक अधिकारों के साथ ही नागरिकों के कर्तव्यों के बारे में पाठ पढ़ाया जाएगा. सिसोदिया के बयान से यह भी साफ़ है कि सरकार का मानना है कि व्यक्ति के कार्यों और उसके नागरिकीय मूल्यों के बीच खाई पूरी तरह पाटी नहीं जा सकती.

लेकिन, जब हम बच्चों से ऐसे उच्च आदर्शों की स्थापना की अपेक्षा रखते हैं, तब क्या हमें उनके सामने ऐसे उदाहरण स्वयं भी प्रस्तुत नहीं करने चाहिए?

आज देश के मीडिया (सोशल मीडिया समेत) में राजनैतिक दलों की कारगुज़ारियां ही ज़्यादातर सुर्ख़ियां बनती हैं. सूचना क्रांति और तकनीक तक पहुंच सहज होने के कारण राजनीति अब बच्चों पर भी सीधा असर डाल रही है. बच्चे मोदी, शाह, राहुल, सोनिया, ममता, केजरीवाल इत्यादि को जानते-पहचानते हैं. मीडिया में रोज़मर्रा आने वाली राजनैतिक ख़बरों में दैनंदिन जीवन में अनुकरणीय कथ्य क्या एक प्रतिशत भी होता है? या फिर राजनीति की दुनिया की ख़बरें और उनके विश्लेषण बच्चों में नकारात्मकता ही पैदा कर रहे हैं, इसका विषद अध्ययन समाज शास्त्रियों को पूरी संवेदनशीलता से करना चाहिए?

क्या राजनीति में कुछ अनुकरणीय है?

राजनीति में ऐसा क्या अनुकरणीय और सकारात्मक है, जो आज के कर्णधारों को बचपन में ही जानना चाहिए? क्या इस प्रश्न का उत्तर देश की तमाम पार्टियों को नहीं तलाशना चाहिए? आज तो बच्चे यही देख और सीख रहे हैं कि जो नेता या दल संसदीय मर्यादाओं को तार-तार करने की जितनी दक्षता रखता है या प्रदर्शित करता है, वह उतना ही सुर्ख़ियों में रहता है.

आप तर्क दे सकते हैं कि यह तो विपक्षी आचरण का ही ज़िक्र हुआ! सत्ता पक्ष भी तो है, क्या उसका आचरण बच्चों के मन पर छाप नहीं छोड़ता? बिल्कुल छोड़ सकता है, लेकिन आज मीडिया में राजनैतिक टकराव, दुराव, अपराध इत्यादि के बारे में ही सूचनाएं प्रमुखता से प्रकाशित और प्रसारित होती  रहती हैं, इसलिए मूल्यों की राजनीति क्या है या क्या हो सकती है, इसका परिचय बच्चों के मानस से नहीं हो पाता.

   

नागरिक शास्त्र स्कूलों में पढ़ाई का विषय हो सकता है, लेकिन सिर्फ़ शास्त्र की पढ़ाई भर से सच्चे नागरिक बनाए जा सकते हैं, ऐसा सोचना मिथ्या भ्रम भर है. हमें सामूहिक रूप से मानना चाहिए कि आज़ादी के बाद से अभी तक हमने सच्चे नागरिक बनाने की दिशा में कुछ ख़ास नहीं किया है. यही कारण है कि दिल्ली सरकार ने अब स्कूली बच्चों को देशभक्ति का पाठ पढ़ाने का कार्यक्रम बनाया है. देखादेखी दूसरे राज्य भी इस तरह के प्रयास करेंगे. लेकिन, बच्चे घर पर झूठ बोलना सीखेंगे, वोटिंग के दिन बिस्तर पर ऊंघते हुए छुट्टी या चहकते हुए पिकनिक मनाना सीखेंगे, तो किताबों में आप कुछ भी लिख कर बच्चों को हू-ब-हू रटवा तो सकते हैं, उन्हें सच्चे और अच्छे नागरिक नहीं बना सकते.

कैसे बन सकते हैं सच्चे भारतीय?बच्चे अगर यही सीखेंगे कि सौ-पचास रुपये देकर दलालों के ज़रिए सरकारी काम कराना ज़्यादा अच्छा है, इससे समय बचता है, परेशानी नहीं होती, तो वे सच्चे नागरिक नहीं बन सकते. बच्चे जब यही सीखेंगे कि हेलमेट या सीट बेल्ट सिर्फ़ चालान से बचने के लिए पहननी होती है, तो फिर आप उन्हें सच्चा भारतीय नहीं बना सकते. बच्चे जब कूड़ा-कचरा कहीं भी फेंकना सीखेंगे, तो फिर उनसे साफ़-सुथरे आचरण की उम्मीद करना बेमानी होगा. ऐसे बच्चे जब बुज़ुर्ग होंगे, तब वे भी लाइन में आगे लगने के लिए झूठ ही बोलेंगे, इसमें कम से कम मुझे तो कोई संदेह नहीं है.

जब तक परिवार, समाज और राजनीति का आचरण नहीं सुधरेगा, तब तक पाठ्यक्रम में इस तरह के विषय शामिल कर लेने भर से ही नई पीढ़ी को देशभक्त नहीं बनाया जा सकता. लेकिन, ऐसे प्रयास पूरी तरह निष्फल भी नहीं कहे जा सकते. शिक्षा राज्यों और केंद्र, दोनों का विषय है. देश या राष्ट्र सभी का है. ऐसे में देशभक्ति की भावना सभी नागरिकों के मन में बचपन से ही कूट-कूट कर भरना केंद्र और राज्य, दोनों की ज़िम्मेदारी है. देशभक्ति का पाठ्यक्रम सिर्फ़ सरकारी स्कूलों में नहीं, बल्कि निजी स्कूलों में भी अनिवार्य रूप से लागू होना चाहिए.

लेकिन ऐसा करने से पहले इस प्रश्न पर बहुआयामी दृष्टिकोण से विचार किया जाना आवश्यक है कि नागरिक अधिकारों के साथ ही कर्तव्यों को किताबों में पढ़ने से ही क्या देशभक्ति का जज्बा जागृत हो सकता है? ऐसा हुआ होता, तो आज़ादी के सात दशक से ज़्यादा समय बाद क्या यह हालत होती? अच्छे नतीजे पाने के लिए क्रियान्वयन के तरीक़ों में बदलाव लाना होगा. बच्चे के साथ ही उसके माता-पिता को भी जागरूक करना पड़ेगा.

देशभक्ति आख़िर है क्या?

देशभक्ति आखिर है क्या? जो कांग्रेस सोचती है या फिर जो आम आदमी पार्टी सोचती है या फिर जो बीजेपी सोचती है? या फिर क्या वामपंथी पार्टियों की बुनियादी सोच में देशभक्ति झलकती है? ज़ाहिर है कि देशभक्ति या राष्ट्रप्रेम को अलग-अलग चश्मों से नहीं देखा जा सकता. यह भावना एक ही हो सकती है और जब तक सभी राजनैतिक दल अपने आचरणों में शुद्धता नहीं लाते, तब तक बच्चों की किताबों में कुछ नए अध्याय जोड़ देने से आप उन्हें यह बता तो सकते हैं कि सच्चा नागरिक क्या होता है, उन्हें असल में सौ प्रतिशत सच्चा नागरिक बना नहीं सकते.

देशप्रेम का अर्थ विशिष्ट अवसरों पर राष्ट्रगान गाना, तिरंगे को सम्मान देना, आतंकवाद का विरोध करना इत्यादि भर नहीं, बल्कि इससे बहुत ज़्यादा है. किताबों में बच्चे अच्छी बातें पढ़ें और घर पर बेईमानी का सबक़, तो क्या होगा? लोकतंत्र दो शब्दों से बना है- ‘लोक’ और ‘तंत्र’. माना जाता है कि ‘लोकतंत्र’ में ‘लोक’ ही प्रधान है और वही ‘तंत्र’ का आचरण सुनिश्चित करता है. संवैधानिक रूप से या कहें कि किताबी रूप से तो यह सही है, लेकिन क्या आज परिस्थितियां ऐसी ही हैं? आज तो लगता है कि ‘तंत्र’ ही ‘लोक’ को भ्रष्ट आचरण का पाठ पढ़ा रहा है.

एक सवाल अक्सर पूछा जाता है और अब तो अदालतें भी पूछने लगी हैं कि मंत्री, सरकारी कर्मचारी और अधिकारी अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में क्यों नहीं पढ़ाते? महंगे निजी स्कूलों में क्यों पढ़ाते हैं? इस सवाल का उत्तर बहुत कठिन नहीं है, लेकिन ग़ौर करें, तो इस अकेले सवाल के उत्तर से ही आज़ादी के बाद अब तक की सरकारों की मंशा और लक्ष्य स्पष्ट हो जाते हैं. बच्चों को देशभक्त बनाना है, तो पहले सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों को देशभक्त बनाना ज़रूरी है.

‘हैप्पीनेस’ पढ़ने भर से नहीं आती

कुछ भी नया कर दूसरों को चौंकाने भर ही अगर मक़सद है, तब तो कोई बात नहीं. लेकिन वाक़ई हालात सुधारने हैं, तो गंभीरता से सोचना पड़ेगा. दिल्ली सरकार ने हैप्पीनेस का पाठ बच्चों को पढ़ाया, अच्छी बात है. दिल्ली सरकार ने बच्चों के मन में उद्यमिता की सोच विकसित करने का मानस बनाया, तो यह भी अच्छी बात है, लेकिन क्या पाठ्यक्रम में बदलाव करने भर से बच्चे सच्चे और अच्छे नागरिक बनने की दिशा में प्रगति कर पाते हैं या फिर इस तरह के शिगूफ़े छोड़ कर हम आत्मसंतुष्टि के सागर में गोते लगा कर आत्ममुग्ध हो कर चिंतन की मुद्रा में आंखें बंद कर लेते हैं?

1 अगस्त, 2021 को प्रकाशित एनसीआरबी की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2017 से 2019 तक सिर्फ़ दो साल के दौरान देश भर में 24000 से ज़्यादा बच्चों ने आत्महत्या की थी. ये सभी बच्चे 14 से 18 साल के बीच के थे. इनमें 4000 से ज़्यादा बच्चे परीक्षा में पास नहीं होने की वजह से ख़ुदकुशी कर बैठे. आत्महत्या करने वालों में 13,325 लड़कियां थीं. वर्ष 2017 से 2019 तक इस आंकड़े में लगातार बढ़ोतरी हुई. सबसे ज़्यादा 3115 बच्चों ने मध्य प्रदेश में ख़ुदकुशी की. इसके बाद पश्चिम बंगाल में 2802, महाराष्ट्र में 2527 और तमिलनाडु में 2035 बच्चों ने किसी न किसी कारण से तनाव में आकर जान दे दी.

वहीं 2 नवंबर, 2019 को प्रकाशित एक और रिपोर्ट के मुताबिक़ देश में रोज़ 366 लोग मानसिक तनाव की वजह से आत्महत्या कर रहे थे. दिल्ली में सबसे ज़्यादा 18 साल से कम के बच्चे ऐसा कर रहे थे. दिल्ली-एनसीआर में उस वर्ष 18 साल से कम की 69 लड़कियों और 86 लड़कों ने जान दी. डब्ल्यूएचओ की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में हर एक लाख की आबादी में औसतन 11.4 लोग ख़ुदकुशी करते हैं. भारत में यह दर क़रीब दोगुनी 20.9 प्रति लाख है.

ज़ाहिर है कि अगर हैप्पीनेस या उद्यमिता की पढ़ाई के साथ-साथ बच्चों के मन में सामाजिक सदाचरण की अनिवार्यता बहुआयामी दृष्टिकोण से बैठाई जाए, तो आत्महत्या जैसे हताशा भरे मामले कम हो सकते हैं. बच्चों में आत्महत्या का प्रमुख कारण तो पढ़ाई से जुड़ा तनाव ही है. बच्चों को सच्चा और अच्छा नागरिक बनाना है, देशभक्त बनाना है, तो सिर्फ़ स्कूलों में पढ़ाई से ही कुछ नहीं होगा. बड़ों को भी बदलना होगा. राजनीति को भी बदलना होगा, समाज को भी बदलना होगा. जब हम बिना तिकड़म किए लाइनों में अपनी जगह लगना सीख जाएंगे, तब हम व्यवस्था से यह पूछने के अधिकारी हो जाएंगे कि बुज़ुर्गों के लिए सही व्यवस्था क्यों नहीं की गई है? क्या आपको लगता है कि निकट भविष्य में ऐसा हो सकता है?

(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)

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